मकर संक्रान्ति भारत के प्रमुख पर्वों में एक है

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  • जितेन्द्र कुमार सिन्हा

पटना: 13 जनवरी, 2025 :: ग्रहों के राजा सूर्य देव जब मकर राशि में प्रवेश करते हैं, तब मकर संक्राति मनाया जाता है, इसलिए मकर संक्राति को सूर्यदेव की आराधना का पर्व कहा जाता है। यह दिन सूर्य के उत्तरायण होने का भी प्रतीक है, जिसे भारतीय संस्कृति में सकारात्मक परिवर्तन और समृद्धि का संकेत माना जाता है।

मकर संक्रान्ति भारत के प्रमुख पर्वों में एक है। मकर संक्रांति (संक्रान्ति) पूरे भारत में मनाया जाता है। वर्तमान शताब्दी में यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें दिन यानि 14 तारीख को मनाया जाता है । विगत कुछ वर्षों में इसे ग्रहों की चाल के कारण पन्द्रहवें दिन यानि 15 तारीख को मनाया गया है। मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य धनु राशि से चलकर मकर राशि में प्रवेश करता है।
इस वर्ष मकर संक्रान्ति 14 जनवरी 2025 को मनाई जाएगी। वैदिक पंचांग के अनुसार 14 जनवरी 2025 को सुबह 9 बजकर 3 मिनट पर सूर्य धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करेगा, इसलिए यह समय शुभ मुहूर्त है।

पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में इस बार लोहड़ी 13 जनवरी को मनाई जाएगी। जबकि तमिलनाडु सहित दक्षिण भारत के जिन-जिन हिस्सों में पोंगल का पर्व मनाया जाता है, उसकी तिथियां 14 से 17 जनवरी तक होगी यानि 14 से 17 जनवरी तक पोंगल मनाया जाएगा। पश्चिम बंगाल सहित पूर्वोत्तर राज्यों में बिहू का पर्व मनाया जाता है और बिहू  14-15 जनवरी को मनाया जाएगा।
मकर संक्रांति, भारत के सबसे महत्वपूर्ण, पवित्र और सास्कृतिक पर्व में से एक है। इसे मनाने के पीछे अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक कारण है। यह किसी क्षेत्र विशेष का पर्व नहीं है बल्कि भारत के हर कोने में अलग- अलग नाम और तौर-तरीकों से मनाया जाने वाला महापर्व है।

सनातन संस्कृति का महापर्व है मकर संक्रांति। मकर संक्रांति पंजाब और हरियाणा में लोहड़ी, गुजरात और महाराष्ट्र में उत्तरायण, उत्तर प्रदेश और बिहार में खिचड़ी और तिला संक्रांत, दक्षिण भारत में तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में पोंगल, पश्चिम बंगाल में गंगा सागर मेला, असम तथा पूर्वोत्तर में भोगाली बिहू के नाम से जाना जाता है। कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश में इसे संक्रांति कहते हैं, जबकि देश के अलग अलग हिस्सों में संक्रांति के अलावा भी इसके कई स्थानीय नाम लिए जाते हैं। भले ये सब एक ही समय पर मनाए जाने वाले अलग -अलग पर्व हों, लेकिन इन सभी अलग अलग नामों में विराट सनातन संस्कृति का दर्शन होता हैं।मकर संक्रांति पर्व कृषि कर्मों, धार्मिक क्रिया- कलाप और आस्था का पर्व हैं। इस पर्व को भारत के साथ-साथ नेपाल में भी पूरी धार्मिक श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है।

इस दिन भागीरथ के पीछे-पीछे गंगा चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए गंगासागर में जाकर मिली थी। मकर सक्रांति के दिन गंगा-संगम नदी में स्नान करने की मान्यता है। इस दिन गंगा में डूबकी लगाने के बाद दान पुण्य करने से,  मोक्ष की प्राप्ति होती है। दान में काली उड़द की खिचड़ी, काला तिल, गुड़, नमक, सर्दियों के काले कपड़े, तेल और चावल दान करना शुभ माना जाता है।

मकर संक्रांति पर्व का सिर्फ सांस्कृतिक महत्व ही नहीं होता है बल्कि इसका अपना वैज्ञानिक और खगोलीय महत्व भी है। मकर संक्रांति वह दिन होता है,  जब सूर्य मकर रेखा को पार कर उत्तरी गोलार्ध की ओर बढ़ने लगता है। इसलिए इस दिन शीत ऋतु के अंत होने और बसंत ऋतु की शुरुआत होने का प्रतीक भी माना जाता है। इस दिन से दिन का समय लंबा और रात का समय छोटा होने लगता हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सर्दी धीरे-धीरे कम होने लगती है और गर्मी धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। फसल की कटाई और नए सत्र की शुरुआत का भी सही समय माना जाता है।

मान्यता है कि भीष्म पितामह ने  संक्रांति के दिन ही शरीर त्यागने के लिए सही समय माना था, इसलिए इस दिन को साधना और सिद्धि का भी दिन माना जाता है। मकर संक्रांति के साथ कुछ खाद्य सामग्री के उपयोग की प्राचीन परंपरा है। जिन वस्तुओं के खान-पान की परिपाटी है, उनमें प्रायः सभी नवी फसल आते हैं। धान की नयी फसल आ चुकी होती है। इसलिए चूड़ा और खिचड़ी का महत्व रहता है। चावल से फरही और चूड़े की लाई बनाईं जाती है। कार्तिक महीने से नया गुड़ बाजार में आ जाता है। तिल और गुड़ का उपयोग आने वाले मौसम के लिए शरीर को तैयार रखने के लिए खाया जाता है। तिल को सर्वोतम तैलीय पदाथों में एक माना जाता है। शरीर में जमें धूल-कण की बाहर निकाल कर आंतरिक गड़बड़ियों को दूर करता है। चिकित्सकों की मानें तो गुड़ और तिल मिल कर शरीर की आंतरिक सफाई करता हैं और कफ- पित्त को संतुलित रखता हैं। शरीर को भरपूर ऊर्जा और गर्मी मिलती रहे, इसलिए लोग मकर संक्रांति के दिन तिल और गुड़ तथा उससे बने सामग्रियों का सेवन करते हैं। मान्यता यह भी है कि मकर संक्रांति, भारत के विभिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक और वैज्ञानिक आयामों का समागम है। यह पर्व एक तरह से फसल कटाई का प्रतीक है, तो वहीं दूसरी तरफ ऋतु परिवर्तन का भी संकेत देता है। यह पर्व सामाजिक एकता, आध्यात्मिक शांति और प्रकृति के साथ सामंजस्य का संदेश भी देता है।
         

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