शास्त्रीय नृत्य शैलियों से युवा पीढी अपने देश की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि और इसकी संस्कृति को बेहतर तरीके से समझ सकते है: डाॅ रमा दास, वरिष्ठ कत्थक कलाकार

Art and culture

  • जितेन्द्र कुमार सिन्हा

पटना: 20 नवंबर 2024 :: शास्त्रीय नृत्य शैली केवल एक कला परंपरा नहीं है। बल्कि इसे अपने देश की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि और हमारी संस्कृति और संस्कार से युवा पीढ़ी को परिचित कराने का माध्यम भी माना जा सकता है।
ये बातें कही वरिष्ठ कत्थक कलाकार डॉ राम दास ने आज पटना में हुए एक कार्यक्रम के दौरान।
बिहार सरकार द्वारा अम्बपाली पुरस्कार तथा चित्रगुप्त सामाजिक संस्थान और चंडीगढ विश्वविद्यालय द्वारा प्रदत्त लाइफटाइम अचीवमेंट एवार्ड से सम्मानित, डाॅ रमा दास ने कत्थक नृत्य की विशेषता पर चर्चा करते हुए कहा कि कत्थक नृत्य शैली को ही लें जो उत्तर भारत का एकमात्र शास्त्रीय नृत्य शैली है। “इसकी उत्पत्ति ही मंदिरों में होनेवाले कथा वाचन से हुई और इस नृत्य शैली में कलाकार श्रीराम और कृष्ण तथा शिव-पार्वती से जुड़ी कथाएं ही प्रस्तुत करते रहे हैं। वैसे तो एक कलाकृति के रूप में इसका आनंद उठाया जाता है। लेकिन इन प्रस्तुतियों को देखकर युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति से, अपने देश की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से बहुत अच्छी तरह परिचित हो सकती हैं,” रमा जी ने कहा।
उन्होंने कहा कि बिहार में शास्त्रीय नृत्य शैलियों के कार्यक्रम तो होते रहे हैं, लेकिन उसका मूल स्वरूप अभी तक लोगों के बीच पूरे तरीके से नहीं आया है। उदाहरण स्वरूप कत्थक नृत्य शैली को ही लें। इसके कार्यक्रम यहां लगातार होते रहे हैं ,लेकिन इस नृत्य शैली का मूल स्वरूप क्या है, इसकी जानकारी अभी भी बहुत कम है लोगों में। “इस नृत्य शैली की उत्पत्ति कैसे हुई और यह किस तरह विकसित हुई, इस बारे में अभी भी बहुत सी गलतफहमियां हैं हमारे आसपास। आमतौर लोग मानते हैं कि दरबारों-महफिलों से निकली है यह नृत्य शैली। लेकिन सच्चाई तो यह है कि इसका उद्गम स्थल हमारे मंदिर हैं जहां कथावाचन होते थे और उसी क्रम में कुछ हस्तक-मुद्राएं, कुछ भाव-अभिनय भी प्रयोग होने लगे। बाद में इसका एक शास्त्र बन गया। और यह एक शास्त्रीय नृत्य शैली बन गई”।
पत्रकार अर्पिता के सवालों के संदर्भ में अपनी निजी कला यात्रा को साझा करते हुए हुए रमा जी ने कहा कि उन्होने जिन दिनो कत्थक सीखना शुरु किया था, यानि 70के दशक मे,
उन दिनो कुछ कारणों से कत्थक नृत्य को वो सामाजिक-सांस्कृतिक जगह नहीं मिली थी जिसकी ये हकदार रही। “मेरा इस क्षेत्र मे आने का एक कारण यह भी रहा। मेरी कोशिश रही कि इसे इसकी जगह दिलाउँ। इसके एक कत्थक कलाकार के रूप में की प्रयोग किए। सबसे पहले तो इसके वस्त्र-आहार्य मे परिवर्तन किया। मैनें कत्थक के मुगल काल के वस्त्र के बदले साडी पहनकर कत्थक किया। फिर उस काल में कत्थक में प्रयोग की जानेवाली कई ऐसी भाव भंगिमाएं थीं जिस बारे मे मुझे लगा कि वो एक खास परिवेश के लिए थीं और आज के प्रबुद्ध औडियंस के लिए उनकी कोई जरूरत नहीं। अतः उन्हे भी अपने प्रस्तुतिकरण से हटा दिया। “
कथक नृत्य में अपने योगदान और प्रयोग की बात करते हुए रमा जी ने कहा कि कथक नृत्य तो कथा पर ही आधारित है और कलाकार प्रायः भक्तिकाल के कवियों की रचनाएं ही प्रस्तुत करते रहे। “लेकिन मैंने इसमे भी सूरदास और मीराबाई की उन रचनाओं को उठाया, जो कम चर्चा में रहीं थीं। और इसके बाद मैने महाकवि विद्यापति की उन रचनाओं को अपने नृत्य में शामिल किया जिनपर उन दिनो बहुत कम बात होती थी”।
रमा जी ने आगे कहा कि उन्होने हिन्दी साहित्य के छायावादी कवियों को अपने नृत्य मे शामिल किया। ‘”इसकी शुरुआत की मैने निराला कृत राम की शक्ति पूजा से। निराला मेरे पिताजी के भी प्रिय कवि थे और मेरे लिए भी अति आदरणीय। मैने राम की शक्ति पूजा पढी तो लगा यह नृत्य के लिए ही लिखा गया हो। और मैने इसका एकल मंचन किया 70के दशक में। देश भर मे शायद पहली बार इस महाकाव्य का कत्थक नृत्य शैली में मंचन हुआ था”।

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