- जितेन्द्र कुमार सिन्हा
पटना: 04 अगस्त 2023 :: हिन्दू संस्कृति के प्रणेता आदिदेव महादेव हैं। पुराणों में, वेदों में और शास्त्रों में भगवान शिव- महाकाल के महात्म्य को प्रतिपादित किया गया है।
सांस्कृतिक मान्यता के अनुसार 33 करोड़ देवी- देवताओं में ‘शिरोमणि’ देव शिव ही हैं। सृष्टि के तीनों लोकों में भगवान शिव एक अलग, अलौकिक शक्ति वाले देव हैं।
भगवान शिव पृथ्वी पर अपने निराकार-साकार रूप में निवास करते हैं। भगवान शिव को सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान माना गया हैं।
शिव प्रलय के पालनहार हैं और प्रलय के गर्भ में ही प्राणी का अंतिम कल्याण सन्निहित है। शिव शब्द का अर्थ है ‘कल्याण’ और ‘रा’ दानार्थक धातु से रात्रि शब्द बना है, तात्पर्य यह कि जो सुख प्रदान करती है, वह रात्रि है।
‘शिवस्य प्रिया रात्रियस्मिन व्रते अंगत्वेन विहिता तदव्रतं शिवरात्र्याख्याम्।’
भगवान शिव को ताम्रफल (बादाम), कमल पुष्प, अफीम बीज और धतूरे का पुष्प चढ़ाना चाहिए एवं अभिषेक कर बिल्व पत्र चढ़ाना चाहिए।
भगवान शिव को एक आदर्श गृहस्थ माना जाता हैं, क्योंकि माँ पार्वती ने उन्हें कठिन तपस्या से पाया था और उनका सम्पूर्ण प्यार भी हासिल किया था। भगवान शिव केवल एक पत्नीव्रती है, इसलिए नारी को सर्वाधिक महत्व भगवान शिव ने दिया। इतना हीं नही उन्होंने माँ पार्वती को अपने शरीर में ही आधी जगह दे दी, जिसके कारण वे अर्धनारीश्वर भी कहे जाते हैं।
यह मान्यता है कि जो प्राणी भगवान शिव का जागरण करता है, उपवास रखता है और कहीं भी किसी भी शिवजी के मंदिर में जाकर भगवान शिवलिंग के दर्शन करता है, वह जन्म-मरण पुनर्जन्म के बंधन से मुक्ति पा जाता है।
ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति भगवान शिव की भक्ति, दर्शन, पूजा, उपवास एवं व्रत नहीं रखता है, वह सांसारिक माया, मोह एवं आवागमन के बंधन से हजारों वर्षों तक उलझा रहता है। गीता में इसे स्पष्ट किया गया है-
या निशा सर्वभूतानां तस्या जागर्ति संयमी।
यस्यां जागृति भूतानि सा निशा पश्चतो सुनेः॥
अर्थात् विषयासक्त सांसारिक लोगों की जो रात्रि है, उसमें संयमी लोग ही जागृत अवस्था में रहते हैं और जहां शिव पूजा का अर्थ पुष्प, चंदन एवं बिल्वपत्र, धतूरा, भांग आदि अर्पित कर भगवान शिव का जप व ध्यान करना और चित्त वृत्ति का निरोध कर जीवात्मा का परमात्मा शिव के साथ एकाकार होना ही वास्तविक पूजा है।
भगवान शिव कला के सृजनकर्ता, ताण्डव नृत्य द्वारा नई विधा को जन्म देने वाला नटराज, डमरू बजाकर संगीत उत्पन्न करने वाले, प्रकृति और पर्यावरण के रक्षक हैं। किसान के साथी हैं। भगवान शिव का वाहन बैल रूपी नन्दी है। इन्होंने पंचभूत को पनपाया, जिसमें क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, तत्व हैं। वर्तमान समय में भगवान शिव समस्त जम्बू द्वीप के एकीकरण के महान शिल्पी प्रतीत होते है, क्योंकि सती के शरीर के हिस्सों को शक्तिपीठों के रूप में स्थापित किया था, उस समय समूचा राष्ट्र-राज्य एक सूत्र में बंध गया था।
पांच सदियों पूर्व गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा ”जो रामेश्वर दरसु करिहहिं, ते तनु तजि मम लोक सिधारहि।“ इतना बड़ा आकर्षण है कि गंगाजल को रामेश्वरम में अर्पित करे तो मोक्ष मिलेगा। शैवमत कभी हिमालयी वादियों में लोकधर्म होता था। जब शिव यात्रा पर निकले तो नन्दी को पहलगाम में, अपने अर्धचन्द्र को चन्दनवाड़ी में और सर्प को शेषनाग में छोड़ आये। अमरनाथ यात्री इन्हीं तीनों पड़ावों से गुजरते हैं।शिवालय में जाने—आने पर कोई पाबंदी नहीं है, न छुआछूत, न परहेज और न कोई अवरोध, क्योंकि शिवालय में आने के बाद सभी आगंतुक चाहे वह किसी जाति, किसी मजहब का क्यों न हो सभी शिव भक्त हो जाते हैं।
शिव भक्त द्वादश ज्योतिर्लिय की पूजा करते हैं। यह चर्चा का विषय हमेशा बना रहता है कि अन्य देवताओं का जन्मोत्सव मनाया जाता है, मगर शिव का विवाहोत्सव पर्व क्यों मनाया जाता है। भगवान शिव दर्शाना चाहते हैं कि सृजन और निधन सृष्टि का शाश्वत नियम हैं। उन्हें कभी भी भूलना नहीं चाहिए। भगवान शिव ने श्रावण मास को पसंद किया था क्योंकि इस समय तक सारी धरा हरित हो जाती है। यह भी सिद्ध कर दिया गया है कि जल ही जीवन है। ऊबड़ खाबड़, सर्वहारा जनों को बटोरकर भगवान शिव ने माँ पार्वती से विवाह करने गये थे। यह समता का संदेश देता है।
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो।
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः।।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं।
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्।।
अर्थात् वे तो चिता भस्म का लेप लगा कर विषपान किया करते थे व दिशाओं को ही वस्त्र स्वरूप धारण करते थे, वे पशुपति जटा रखते व आभूषण स्वरूप कंठ में भुजगपति को धारण किए रहते थे आज वे कपाली भूतेश जगदीश की पदवी पर प्रतिष्ठित हैं।
मृत्युंजय मंत्र का हमेशा जप करना चाहिए
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥