- जितेन्द्र कुमार सिन्हा
पटना :: भारतीय इतिहास आदिकाल से ही उन महान चिंतकों एवं मनीषियों की थाती रहा है जिन्होंने अपने विषद् चिंतन एवं दर्शन से समाज, ज्ञान-विज्ञान और कला-संस्कृति को हमेशा नये आयाम दिये है। प्रत्येक युग में मानव मूल्यों की सुरक्षा एवं संवृद्धि में वे सदैव अग्रणी रहे हैं और समाज तथा राज दोनों के दुराग्रही दंभ एवं कुरीतियों के प्रखर विरोधी भी थे। बुद्ध, कबीर, नानक, तुलसी, राजा राम मोहन राय, महर्षि दयानन्द और महात्मा गाँधी सभी सामाजिक चेतना और समभाव के अलमबरदार रहे थे। इसी सुशोभित गुरूतामण्डित लड़ी की कड़ी थे डॉ0 भीम राव अम्बेदकर।
डॉ० अम्बेदकर का जन्म 14 अप्रील, 1891 को मध्य प्रदेश की महु छावनी में हुआ था। उनके पिता उस समय भारतीय सेना में कार्यरत थे। वे अपने बच्चों विशेषकर भीम राव को विद्यार्जन के लिये निरन्तर प्रेरित करते रहते थे।
डॉ० अम्बेदकर का जीवन संघर्षों से भरा हुआ था, पर उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि प्रतिभा और उच्च मनोबल से जीवन की हर बाधा पार की जा सकती है। उनके जीवन की सबसे बड़ी बाधा थी हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था, जिसके तहत जिस परिवार में वे जन्मे, उसे ‘‘अस्पृश्य’’ माना जाता था।
1908 में युवक भीम राव ने बम्बई विश्वविद्यालय से हाई स्कूल की परीक्षा पास की। एक अस्पृश्य बालक के लिये यह एक अद्भूत एवं बिरल उपलब्धि थी।
चार साल बाद बम्बई (मुंबई) विश्वविद्यालय से ही राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र में स्नातक परीक्षा पास की और उसके साथ ही उन्हें बड़ौदा में नौकरी मिल गयी थी। इसी दौरान उनके पिता का निधन हो गया था। पिता की मृत्यु के चार माह बाद भीम राव को कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए अमेरिका जाने का अवसर मिला था, जिसके लिये बड़ौदा राज्य के महाराज से उन्हें छात्रवृति प्राप्त हुई थी। उनकी यह उपलब्धि बेमिसाल थी। फिर भी वे संतुष्ट नही थे। इनका यह दृढ़ मत था कि ज्ञान ही शक्ति है और इस शक्ति के बिना वे उन करोड़ों अछूतों की बेड़ियों को नहीं काट सकते, जिनके कारण वे दासत्व की स्थिति में पड़े हुए हैं।
1913 से 1917 तथा 1920 से 1923 तक की अवधि में वे विदेश में रहे थे और 32 वर्ष की आयु में अंतिम रूप से भारत लौट आये थे। इस बीच स्वयं को उन्होंने एक जाने-माने प्रबुद्ध व्यक्ति के रूप में प्रतिस्थापित कर लिया था। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उन्हें उनके शोध ग्रंथ पर पीएचडी की डिग्री प्रदान की गयी थी। बाद में उनका यह शोध ग्रंथ पुस्तक के रूप में छपा जिसका शीर्षक था- ‘‘द एबूल्यूशन ऑफ प्रोविशियल फिनांस इन ब्रिटिश इंडिया’’। लंदन में अपने प्रवास की अवधि 1920 से 23 तक के दौरान उन्होंने ‘‘द प्रोब्लम ऑफ द रूपि’’ नामक अपने शोध ग्रंथ का कार्य भी पूरा किया था जिसके लिये उन्हें डीएससी की उपाधि प्रदान की गयी थी। लंदन जाने के पहले उन्होंने बम्बई (मुंबई) के एक कॉलेज में कुछ दिनों तक अध्यापन कार्य भी किया था।अप्रील, 1923 में भारत लौटने पर अछूतों औद दलितों के हित के लिए संघर्ष करने हेतु डॉ० अम्बेदकर ने स्वयं को पूरी तरह तैयार कर लिया था। उस समय तक भारत में राजनैतिक परिस्थितियाँ काफी बदल चुकी थी और देश में स्वतंत्रता संग्राम काफी आगे बढ़ चुका था। तब से आजादी मिलने यानि 1947 तक उनके जीवनवृत और भारतीय इतिहास को अलग कर पाना कठिन है।
स्वाधीनता मिलने के बाद अगस्त, 1947 में उन्हें भारत का कानून मंत्री बनाया गया था, किन्तु हिन्दू कोड बिल को लेकर सरकार से मतभेद हो गया और उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था।
29 मई, 1956 को उन्होंने बम्बई में बुद्ध जयन्ती के अवसर पर घोषणा की कि वे अक्तूबर में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेंगे और 14 अक्तूबर, 1956 को हिन्दू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।
बाद में संविधान सभा ने अम्बदेकर को मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया था और इस तरह वह अस्पृश्य व्यक्ति मातृभूमि के संविधान का शिल्पी बना। डॉ० अम्बेदकर के विषय में भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश राजेन्द्र गडकर ने कहा था- ‘‘अम्बेदकर 20वीं शताब्दी के विधि निर्माता और आधुनिक मनु हैं लेकिन पुरातन मनु के विपरीत यह नया मनु जात-पात भजक तथा मानव में समानता और सामाजिक न्याय का पोषक था।’’
डॉ० अम्बेदकर जात-पात के प्रबल विरोधी थे। जाति-तत्व का सूक्ष्म विशलेशन करते हुए उनका कहना था कि यह न तो श्रम विभाजन पर आधारित है और न प्राकृतिक क्षमताओं पर। जाति व्यक्ति के लिये पहले से काम निर्धारित करती है, उनके प्रशिक्षण और उनकी मौलिक क्षमताओं पर नहीं। जात-पात का निर्धारण जन्म और माता-पिता के सामाजिक दर्जे पर किया जाता है। जाति व्यवस्था जिन विषैले सिद्धान्तों पर आधारित है उनसे कुंठाए जन्म लेती है। इसके कारण बदलती परिस्थिति के अनुरूप व्यवसाय और काम-धंधे में परिवर्तन करना असंभव हो जाता है। साथ ही, यह भ्रांति भी दृढ़ होती है कि सब नियति का खेल है और प्रगति असंभव है। उन्होंने ठोस तर्क देकर सिद्ध किया कि चतुर्वर्ण और जाति प्रथा के कारण ही भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या स्थायी रूप से अक्षम हो गयी है।
डॉ० अम्बेदकर का राष्ट्रवाद दलितों और निर्धनों के उद्धार के साथ शुरू हुआ था। उन्होंने समानता और नागरिक अधिकार दिलाने के लिये जीवन पर्यन्त संघर्ष किया था। राष्ट्रीयता संबंधी विचार केवल गुलाम देशों की मुक्ति तक ही सीमित नहीं है वरन् वे प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता चाहते थे। उनके अनुसार जब तक जातिविहीन समाज की स्थापना नहीं हो जाती, तब तक स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है।
6 दिसम्बर, 1956 को बाबा साहब डॉ० भीमराव अम्बेदकर का महापरिनिर्वाण हो गया।
बाबा साहब एक महान समाज सुधारक, पद-दलितों के मुक्तिदाता, गरीबों के मसीहा और दबी-कुचली मानवता के फौलादी संरक्षक थे। भारत के इतिहास में उन्होंने जो विशिष्ट प्रतिष्ठाजनक स्थान बनाया है वह इसलिये नहीं कि वे एक धुआंधार लेखक, जाने-माने अर्थशास्त्री अथवा निपुण राजनीतिज्ञ थे या वकालत में उन्होंने बहुत यश कमाया या भारतीय गणराज्य के संविधान निर्माताओं में ग्रणी थे, बल्कि यह स्थान बना है तो इसलिये कि उन्होंने जात-पात के घिनौने संसार से अस्पृश्यों को बाहर निकाला, उन्हें सम्मान दिलाया, उन्हें अपनी ताकत का एहसास कराया, उनका साया बल जगाया, उन्हें संगठित कर एक मंच पर ला खड़ा किया तथा उनके अधिकारों के लिये संघर्ष का बिगुल बजाया था।
पिछड़ी जाति के मसीहा और भारतीय संविधान के निर्माता युग पुरूष बाबा साहेब भीम राव अम्बेदकर को 14 अप्रील, 1990 को मरणोपरान्त भारत सरकार ने राष्ट्रपति भवन में भारत रत्न, राष्ट्र के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, से सम्मानित किया था और उनके एक विशाल चित्र का संसद के केन्द्रीय कक्ष में अनावरण भी किया था।