- सत्यनारायण प्रसाद
पटना :: संस्कृत का कवि बैठा था और अजीबोगरीब हरकते कर रहा था। कभी-कभी ऐसा होता था कि आदमी प्रयोग की भूमिका में दिखता था, तो कभी उसका व्यवहार असामान्य हो जाता था। यह कवि अपने सामने एक तराजू रखे हुआ था और पास में दूध से भरा पात्र है।
कवि चिंतन में दूबा कुछ सोच रहा था। उसी समय एक व्यक्ति ने कवि से पूछा, कविश्रेष्ठ तुम तो हो, सरस्वत के आराधक भी हो, तो फिर यह तराजू कब से हाथ में ले ली ? क्या तोलना चाहते हो इस तराजू से। यह प्रश्न सुनकर कवि ने कहा कि ‘तराजू के एक पलड़े पर मैं दूध रखना चाहता हूं, किंतु दूसरे पलड़े पर क्या रखूं यह सोच रहा हूँ। इस बात पर इस व्यक्ति ने कहा कि इसमें ‘सोचने की क्या बात है। दूध को तोलना चाहते हो, तो दूसरे पलड़े पर बाट रखो। इस पर कवि ने कहा कि ‘नहीं, मैं पदार्थ को पदार्थ से तोलना चाहता हूँ।लेकिन एक प्रश्न है- दूध के बराबर वाले दूसरे पलड़े पर कौन बैठ सकता है? दूध श्वेत और पवित्र है, सहद मधुर है। इसके बराबर रखने के लिए इसी के तरह की गुण-धर्म वाली कोई चीज चाहिए।’ व्यक्ति ने कहा कि ‘दूध की तरह श्वेत रुईया-चांदी है इसमें से किसी को रख लो। रही बात मधुरता की तो कोई दूसरी मीठी चीज रखी जा सकती है।’ कवि को यह परामर्श भी जंचा नहीं दूध की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसे तपाओ, फिर उसे जमाओ, फिर दही बनने के बाद उसे मथानी से मथो इसके बाद दूध जो चीज हमें देगा, वह है स्नेह या नवनीत है। कोई ऐसी चीज है जो इतना प्रताड़ित करने के बाद भी नवनीत या स्नेह प्रदान करे? अगर ऐसी कोई चीज है तो वही दूध के बराबर तुला पर रखी जा सकती है। कहने का अर्थ यह है कि धार्मिक व्यक्ति को कितना ही संताप दो, वह स्नेह ही देगा।