एम्मा मैककॉन: तरणताल की नई महारानी

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एम्मा मैककॉन: तरणताल की नई महारानी

  • दिलीप कुमार

पिता अंतरराष्ट्रीय स्तर के तैराक रहे। मां ने भी तरणताल में खूब गोते लगाए। उनका जन्म तो वैसे ऑस्ट्रेलिया के एक अस्पताल में हुआ, लेकिन जब उन्होंने आंखें खोली तो अपने आपको तरणताल के पास ही पाया। ओलंपिक खेलों में भाग ले चुके और राष्ट्रमंडल खेलों में चार स्वर्ण पदक जीत चुके पिता रॉन मैककॉन तैराकी की अकादमी चलाते थे। ओलंपिक में ऑस्ट्रेलिया का प्रतिनिधित्व और राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीत चुकी माँ सूमी मैककॉन भी दिनभर तरणताल के पास ही रहती। चाचा रॉब वुडहाउस का ठिकाना भी वहीं था। बड़ा भाई डेविड मैककॉन भी वहीं पर मिलते। ऐसे माहौल में एम्मा मैककॉन भी तरणताल में डुबकी लगाने लगी। घर में पिता का खूब स्नेह मिलता, लेकिन तरणताल के पास वह एक कठोर अनुशासनप्रिय प्रशिक्षक बन जाते। एम्मा मैककॉन यहीं पर अपने भाई डेविड मैककॉन के साथ निरंतर अभ्यास करती। सब कुछ सही जा रहा था, फिर भी लगन में कुछ कमी रह गई थी। 2012 के लंदन ओलंपिक खेलों में भाग लेने वाली ऑस्ट्रेलियाई टीम के चयन के लिए क्वालीफाइंग प्रतियोगिता का आयोजन हुआ तो दो अलग-अलग स्पर्धाओं में वह चौथे और सातवें स्थान पर रही।एम्मा मैककॉन के लिए लंदन ओलंपिक का टिकट कटते-कटते रह गया। लेकिन, भाई डेविड मैककॉन का चयन ऑस्ट्रेलियाई टीम में हो गया। जीवन में कई बार मनुष्य अपनी असफलता से कम और अपने किसी परिचित की सफलता से अधिक निराश हो जाता है। 17 वर्ष की तरुणी एम्मा मैककॉन के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह विश्वास नहीं कर पा रही थी कि उनका चयन नहीं हुआ और उनके भाई का चयन हो गया। इस निराशा के कारण उन्होंने अभ्यास करना भी छोड़ दिया। मगर अनुभवी माता-पिता ने एम्मा का उचित मार्गदर्शन करते हुए उन्हें विश्वास दिलाया कि उसके लिए ओलंपिक के दरवाजे सदा के लिए बंद नहीं हुए हैं। असफलता से निराश हुए बिना यदि वह निरंतर अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रही तब भविष्य में और भी मौके आएंगे। फिर वह दर्शक के रूप में लंदन ओलंपिक में शामिल हुई और वहां से वापस आने के बाद कठिन परिश्रम करने लगी।
उचित मार्गदर्शन और कठिन परिश्रम व्यक्ति को सफलता के मार्ग पर ले जाता है। 2012 में किसी भी स्पर्धा के लिए क्वालीफाई न करने वाली एम्मा मैककॉन को 2014 के ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों की चार स्पर्धाओं के लिए चयनित किया गया। 200 मीटर तैराकी में उन्होंने स्वर्ण पदक और टीम रिले में उन्होंने दो रजत पदक जीते। विभिन्न राष्ट्रमंडल खेलों में अब तक वह आठ स्वर्ण पदक सहित 12 मेडल जीत चुकी हैं। विश्व तैराकी चैंपियनशिप में भी उन्होंने सोना जीता। फिर रियो ओलंपिक की बारी आई। लंदन ओलंपिक से पहले मन में छाई निराशा के बादलों को दूर करते हुए एम्मा मैककॉन ने रियो ओलंपिक में 4× 100 मीटर में स्वर्ण पदक सहित कुल 4 पदक जीते, जिसमें 100 मीटर बटरफ्लाई स्पर्धा का व्यक्तिगत कांस्य पदक भी शामिल रहा। इस सफलता ने एम्मा मैककॉन को और अधिक अभ्यास, और अधिक परिश्रम करने के लिए प्रेरित किया। हर साल बाद कुछ और बेहतर होती चली गईं। इस साल टोक्यो ओलंपिक में वह स्टार खिलाड़ी के रूप में शामिल हुई थी। तरणताल में उतर कर बार-बार सोना और दूसरे पदक हासिल करते हुए उन्होंने अपनी चमक से सारी दुनिया को चमत्कृत किया। साथ ही ओलंपिक की सर्वकालिक श्रेष्ठ खिलाड़ियों में भी अपने आप को शामिल कर लिया। टोक्यो ओलंपिक में एम्मा मैककॉन ने चार स्वर्ण पदकों सहित कुल सात पदक जीते। ओलंपिक के 124 सालों के इतिहास में किसी एक ओलंपिक में 7 पदक जीतने वाली वह दूसरी खिलाड़ी बन गई हैं। उनसे पहले 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में और उसकी जिम्नास्ट मारिया गोरोखोस्काया ने 7 पदक जीते थे। अपनी सफलता से एम्मा मैककॉन माइकल फेल्प्स, मार्क्स स्पिट्ज और मैट बियोन्डी जैसे महान तैराकों की श्रेणी में आ गई हैं जिन्होंने किसी एक ओलंपिक में 7 या अधिक पदक हासिल किए हैं। एम्मा मैककॉन ने 100 मीटर और 50 मीटर फ्रीस्टाइल तैराकी में व्यक्तिगत स्वर्ण पदक जीता। 100 मीटर की तैराकी 51.96 सेकंड में पूरा करके उन्होंने नया ओलंपिक रिकॉर्ड भी बनाया। टोक्यो ओलंपिक की सफलता से एम्मा मैककॉन के ओलंपिक पदकों की संख्या बढ़कर 11 हो गई है और वह ओलंपिक खेलों की 50वीं सबसे अधिक पदक पाने वाली खिलाड़ी बन गई हैं। 23 स्वर्ण पदक सहित कुल 28 ओलंपिक पदक जीतकर अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स इस सूची में पहले स्थान पर हैं। एम्मा मैककॉन ऑस्ट्रेलिया की ओर से ओलंपिक खेलों में पांच स्वर्ण पदक जीतने वाली दूसरी खिलाड़ी बन गई हैं। इयान थोर्पे ओलंपिक खेलों में पांच स्वर्ण पदक जीतने वाले पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।

एम्मा मैककॉन की सफलता में अनेक स्वर्णिम मंत्र छुपे हुए हैं। बचपन से की गई तैयारी बेकार नहीं जाती। सफलता के लिए लगातार परिश्रम और कुशल मार्गदर्शन आवश्यक है। व्यक्ति के जीवन में निराशा के क्षण आते हैं, लेकिन कठिन परिश्रम से निराशा को आशा में बदला जा सकता है। शुरुआती असफलताओं के बाद हार मान लेने वाले लोग इतिहास नहीं रचते। असफलताओं से मिले अनुभवों को सहेजते हुए और अपनी गलतियों से सीखते हुए जो लोग नित्य प्रयास करते रहते हैं, वह सफल होते हैं। रेस चाहे जीवन में सफल होने के लिए हो या फिर ओलंपिक तरणताल में पदक हासिल करने के लिए, जीतता वही है जिसमें जुनून और जज़्बा होता है।

*(लेखक, कवि, मोटिवेशनल गुरु दिलीप कुमार भारतीय रेल यातायात सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं।)

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