पीवी सिंधु: हौसले की उड़ान

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  • दिलीप कुमार*

हाथ में रैकेट लेकर जब वह बैडमिंटन कोर्ट में उतरती हैं तो सवा सौ करोड़ लोगों की निगाहें उन पर होती हैं। जोश, जज़्बा और जुनून का वह पर्याय हैं। ओलंपिक खेलों में भारतीय टीम बड़ी-बड़ी उम्मीदों के साथ उतरती रही हैं। टोक्यो ओलंपिक में कई बड़े नामों ने निराश किया पर उन्होंने आशा के दीप को जलाए रखा। अपनी आक्रामक शैली से प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ियों को मात देती हुई जब वह सेमीफाइनल तक पहुंचीं तो करोड़ों देशवासियों की निगाहों में सोने की चमक दिखने लगी। रियो ओलंपिक में उन्हें रजत मिला था। ऐसे में यदि इस बार सोना की चाहत सब रख रहे थे तो वह गलत भी नहीं था। लेकिन, सेमीफाइनल मैच में चीनी ताइपे की खिलाड़ी तायी जू यिंग की आक्रामकता ने पीवी सिंधु के स्वर्णिम इरादों पर पानी फेर दिया। वह निराश हुईं। करोड़ों भारतीय भी निराश हुए। लेकिन, पिता पी रमन्ना के लिए सब कुछ खत्म नहीं हुआ था। उन्होंने अपनी विश्व चैंपियन बेटी से लंबी बातचीत की। उन्हें प्रेरित किया कि इतिहास रचने का मौका अब भी है। ओलंपिक मेडल के लिए तरसते भारत देश की यदि वह कांस्य पदक भी जीत लेती हैं, तो सारा देश उनको सिर आंखों पर बिठाएगा। पिता के शब्दों से उपजी प्रेरणा लेते हुए उन्होंने अपनी ताकत को फिर से बटोरा। कांस्य पदक के लिए हुए मुकाबले में उन्होंने अपने आक्रमण को और तीक्ष्ण किया। जोरदार स्मैश लगाए। दक्षिण कोरिया के कोच पार्क ताइ सेंग के कुशल मार्गदर्शन में पीवी सिंधु ने कांस्य पदक के लिए हुए मुकाबले में चीन की खिलाड़ी हे बिंग जियाओ को पराजित करते हुए इतिहास रच दिया। ओलंपिक खेलों में दो पदक जीतने वाली वह भारत की प्रथम महिला खिलाड़ी बन गई हैं। यही नहीं व्यक्तिगत स्पर्धाओं में दो ओलंपिक पदक जीतने वाले भारतीय खिलाड़ियों की सूची में उनका नाम तीसरे स्थान पर अंकित हो गया है। उनसे पहले नॉर्मन प्रिचार्ड और सुशील कुमार को ओलंपिक खेलों में भारत के लिए दो पदक जीतने का गौरव प्राप्त हुआ है। पीवी सिंधु टोक्यो ओलंपिक में पदक जीतने वाली दूसरी भारतीय खिलाड़ी बनी हैं। मीराबाई चानू ने वेटलिफ्टिंग स्पर्धा में रजत पदक हासिल किया था जो टोक्यो ओलंपिक में भारत के लिए पहला पदक था।
शटलर पीवी सिंधु की सफलता से पूरा देश आह्लादित है। ऐसी सफलता के लिए पीवी सिंधु ने कठिन परिश्रम किया है। भारतीय रेल में कार्यरत उसके माता-पिता वॉलीबॉल के नामी खिलाड़ी रहे हैं। उनके पिता पी रमन्ना ने सियोल एशियाड में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व भी किया। विरासत में मिले खेल में पहचान बनाना पीवी सिंधु के लिए आसान था। लेकिन, ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप में पुलेला गोपीचंद की सफलता ने पूरे परिवार को बैडमिंटन की ओर आकर्षित किया। माता-पिता की सहमति से पीवी सिंधु ने 5 वर्ष की उम्र में ही रैकेट थाम लिया और हैदराबाद स्थित भारतीय रेल सिग्नल एवं दूरसंचार अकादमी के स्पोर्ट्स कांप्लेक्स में खेलने लगी। नैसर्गिक प्रतिभा, माता-पिता के कुशल निर्देशन और पीवी सिंधु की लगन से सकारात्मक संदेश मिलने लगे कि यह लड़की आगे चलकर बड़ा खिलाड़ी बन सकती है। फिर क्या था? पूरे परिवार ने अपने सपनों के आकार को बड़ा कर लिया जिससे बड़े संघर्ष की भूमिका तैयार हुई। जरूरत को देखते हुए मां ने सरकारी सेवा छोड़ दी तो पिता ने लंबे-लंबे अवकाश लिए। पुलेला गोपीचंद का ट्रेनिंग सेंटर उसके घर से करीब 50 किलोमीटर दूर था। प्रतिदिन सिंधु को उस ट्रेनिंग सेंटर तक समय से पहुंचाने की जिम्मेदारी पिता ने अपने कंधों पर ली। छोटी सी सिंधु को स्कूटर पर बैठाने के बाद वह उसे अपनी पीठ के साथ कपड़े से बांध देते थे ताकि सिंधु स्कूटर से गिर न पड़े। तमाम मुश्किलों के बाद भी उन्होंने सुनिश्चित किया कि सिंधु प्रतिदिन समय पर प्रशिक्षण के लिए मौजूद रहे। प्रशिक्षण के दौरान सिंधु ने भी मेहनत से कभी भी मुंह नहीं मोड़ा। लगातार अपने आप को मजबूत बनाती चली गईं। 2012 के लंदन ओलंपिक खेलों में साइना नेहवाल ने जब कांस्य पदक जीता तो पीवी सिंधु के बाजूओं में भी फौलादी ताकत आ गई। उन्हें विश्वास हो गया कि बैडमिंटन के कोर्ट में भारत के सुनहरे दिनों की शुरुआत हो चुकी है। साइना नेहवाल ने जो शुरुआत दी है, उसे गति प्रदान करने की जिम्मेदारी उसके कंधों पर है। क्रिकेट की दीवानगी में मस्त देश को साइना नेहवाल के रूप में नई नायक मिली थी। अधिकारियों और स्पॉन्सरों ने भी जब इस ओर अपनी निगाहें घुमाईं तो पीवी सिंधु की ताकत और बढ़ गई। पूरी दुनिया का बैडमिंटन कोर्ट उनके लिए खुल गया। एक के बाद एक लगातार वह सभी महत्वपूर्ण टूर्नामेंट जीतती चली गईं। 14 वर्ष से पहले जूनियर वर्ग की सभी प्रमुख भारतीय प्रतियोगिताओं में अपनी चमक बिखेरने के बाद पीवी सिंधु ने इंटरनेशनल सर्किट में कदम रखा। जीवन में अत्यंत सहज रहने वाली पुसर्ला वेंकट सिंधु जब बैडमिंटन कोर्ट पर उतरती हैं तब अपनी शानदार सर्विस और आक्रमक अंदाज से सबका मन मोह लेती है और प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को घुटने टेकने पर बाध्य कर देती हैं। ओलंपिक में दो पदक जीतने के अलावा वह विश्व चैंपियनशिप में भी पाँच पदक जीत चुकी हैं। 2019 के बासेल विश्व चैंपियनशिप में पीवी सिंधु ने स्वर्ण पदक जीता था। 2017 के ग्लासगो विश्व चैंपियनशिप तथा 2018 के नानजिंग विश्व चैंपियनशिप में उन्हें रजत पदक मिला था। 2013 के कोपनहेगन विश्व चैंपियनशिप तथा 2014 के ग्वांगझू विश्व चैंपियनशिप में उन्हें कांस्य पदक मिला। ओलंपिक तथा विश्व चैंपियनशिप मिलाकर सात पदक जीतने वाली वह विश्व की तीसरी खिलाड़ी हैं। पीवी सिंधु ने एशियाई खेलों में भी दो पदक जीते हैं। जकार्ता एशियाई खेलों में उन्हें रजत पदक और इचियोन एशियाई खेलों में कांस्य पदक मिला था। गोल्ड कोस्ट में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में पीवी सिंधु ने मिश्रित टीम स्पर्धा में स्वर्ण पदक और एकल स्पर्धा में रजत पदक प्राप्त किया जबकि ग्लास्गो राष्ट्रमंडल खेल में उन्हें कांस्य पदक मिला। उन्होंने चीन, इंडोनेशिया,हांगकांग, ब्रिटेन सहित कई देशों में सफलता के झंडे गाड़े हैं। उनके नेतृत्व में भारत में उबेर कप की टीम स्पर्धा में कांस्य पदक भी जीता है।

बैडमिंटन कोर्ट पर सिंधु की उपलब्धियां अपार हैं। एक व्यक्ति के रूप में पीवी सिंधु भारतीय सभ्यता और संस्कृति की प्रतिनिधि हैं। अपने माता-पिता का खूब सम्मान और उनके हर आदेश का पालन, खेल के प्रति पूरी निष्ठा, अनुशासन, गुरु के निर्देशों के प्रति समर्पण तथा भारतीय परंपराओं और तीज-त्योहारों का अंगीकरण पीवी सिंधु को विशिष्ट बनाता है। बैडमिंटन कोर्ट पर वह एक स्टार खिलाड़ी होती हैं जिसकी चीख सुन सामने वाले खिलाड़ी की कंपकंपी छूट जाती है। लेकिन, बैडमिंटन कोर्ट के बाहर वह एक सुहृदय मित्र की तरह पेश आती हैं। जिस खिलाड़ी को भी वह पराजित करती हैं, उसे पूरा सम्मान और प्रोत्साहन देती हैं। पूरी दुनिया में पीवी सिंधु घर में माँ-बाप की प्यारी-सी लाडली बिटिया बन जाती है।

*(भारतीय रेल यातायात सेवा के वरिष्ठ अधिकारी दिलीप कुमार कवि, लेखक और मोटिवेशनल गुरु हैं।)

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