Written By – Lovely singh
पिछले करीब दो महीने से कृषि कानून का विरोध कर रहे किसान प्रदर्शनकारियों के ऊपर यह ऐतिहासिक जुमला “पगड़ी संभाल जट्टा” बिल्कुल सटीक बैठ रहा है। आज भी इस यादगार गीत को सुनते ही लोगों की ज़ेहन में किसानों के गौरव व आत्समम्मान की लहर दौड़ने लगती है। जब किसान प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर कर अपनी गूंज से देशभर में किसान-आंदोलन का डंका बजा रहे है, तब हम सभी के ज़ेहन में एक आंदोलन का नाम याद आ रहा है वो है “पगड़ी संभाल जट्टा ” आंदोलन । इस आंदोलन ने आज से 100 साल पहले उस दौर की ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिला कर रख दी थीं। वैसे तो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में किसानों का कृषि कानून को लेकर नाराजगी व आंदोलन करना कोई नई बात नहीं है , जिस तरह से 50 दिनों से लगातार दिल्ली की कड़ाके की ठंड के बावजूद किसान आंदोलन कर रहे हैं। यह उनका काफी साहसिक कदम है और 2020 का यह आंदोलन 1906 की पंंजाब लैंंड कोलोनाइजेेेेसन एक्ट की हमें याद भी दिलाता है।
1907 का वह साल जब अंग्रेजों ने एक के बाद एक तीन ऐसे कानून बना डाले थे। जो किसानों को पूरी तरह से गुलाम बना सकते थे। ये तीन कानून दोआबा बारी एक्ट, पंंजाब लैंंड कोलोनाइजेेेेसन एक्ट 1906 और पंंजाब लैंंड एलियेशन एक्ट थे। इस कानून के तहत किसानों को उनकी जमीनों पर खेती करने का हक नहीं था, ना ही उसपर अपनी मर्जी से घर बना सकते थे और ना ही जमीन पे लगे पेड़ काट सकते थे।
सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि अगर किसान परिवार का बड़ा – बेटा नाबालिग हो या उसकी मृत्यु हो जाती है तो जमीन अधिकारिक तौर पर ब्रिटिश सरकार के अधीन हो जाएगी, ऐसा प्रावधान लागू किया गया था। तब शाहिद भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह ने इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। हालांकि इस आंदोलन का नाम बांके दयाल जी (झांग स्याल अख़बार के एडिटर ) 1907 में ल्यालपुर ( वर्तमान पाकिस्तान) के रैली को संबोधित करने के दौरान इसका नामकरण किया था। लेकिन इस गाने के बोल के अनुसार “पगड़ी ” पंजाबी किसानों की गर्व की बात होती है और यह सीधे उनके सम्मान से जुड़ गया। फिर क्या था जल्द ही ये गीत सबकी ज़ुबान पर आ गया , परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार को आखिर में किसानों की मांग माननी पड़ी।
बरहाल यह घटना तो एक दशक पुरानी हो चुकी है, लेकिन गौर करने वाली सबसे ख़ास बात यह है कि मौजूदा किसान आंदोलन 2020 और साल 1907 में हुए किसान आंदोलन में कई समानताएं होने के साथ-साथ एक बड़ा फ़र्क भी है। वो यह कि मौजूदा प्रदर्शन काफी हदतक शांतिपूर्ण ढंग से चल रही है जबकि पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन के दौरान काफी हिंसा हुई थी। तब अंग्रेज़ी हुकूमत किसानों के मांग के सामने झुकी थी लेकिन क्या आज की इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसानों की जायज़ मांगों की कोई जगह है या नहीं। केन्द्र सरकार जिस तरीके से किसानों की मांग को मानने की बजाय उनके लोकतांत्रिक हक आंदोलन करने पर भी पाबंदी लगाते दिख रही है। इस आंदोलन को लेकर ना सरकार झुक रही है ना ही किसानों का जूनून खत्म हो रहा।
सोचने वाली बात यह है कि सितंबर माह
में आयोजित हुए सत्र में आखिरकार केन्द्र सरकार को इतनी जल्दबाजी में दोनों सदनों में कृषि कानून बिल -2020 पारित करने की क्या हड़बड़ी थी? सरकार की ऐसी क्या मजबूरी रही होगी कि सदन में विपक्ष के साथ बिना किसी चर्चा के आर्डिनेंस पास करवा दिया गया? हालांकि संसद नियम प्रणाली के अनुसार विपक्ष ने निष्पक्ष कमेटी बनाने और 12 अमेंडमेंट का प्रस्ताव दिया था, लेकिन जैसे तैसे इस बिल को पारित किया गया जो कि आश्चर्यजनक बात है और संदेह पैदा करने जैसा है।
सहिष्णुता हमारी भारतीय संस्कृति की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है। यह हमारे विचारों, हमारी सोच में होता है ,तो क्या आज के आत्मनिर्भर भारत को किसानों के हित को ध्यान में रखते हुए बीच का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए? अन्नदाता की यह समस्या काफी पेंचीदा सा है क्योंकि यह वह दौर है जब देश मंदी और फाइनेंशियल करैक-डाउन की स्थिति से गुजर रहा है। इस स्थिति में सरकार को शांति पूर्ण तरीके से किसानों की जायज मांगों को लेकर रास्ता निकाला ही होगा। और यही समय की भी मांग है।
- लवली कुमारी